गोरखपुर: उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्म लेने वाले हिंदी साहित्य के प्रख्यात विद्वान और साहित्यकार रामदरश मिश्र का निधन हो गया। उनके निधन को आधुनिक युग के रचनाकारों के बीच एक खालीपन से जोड़ा जा रहा है। 15 अगस्त 1924 को गोरखपुर के कछार अंचल के डुमरी गांव में उनका जन्म हुआ था। हिंदी तिथि के अनुसार, उनका जन्म श्रावण पूर्णिमा के दिन हुआ था। 15 अगस्त 2023 को उन्होंने जन्म शताब्दी वर्ष मनाया था। 102 वर्षीय इस वरिष्ठ साहित्यकार का दिल्ली में निधन हुआ है। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन से हिंदी साहित्य को नई ऊंचाइयां प्रदान की। उनके लेखन का विषय सामाजिक रहा। वे प्रगतिवाद और नई कविता आंदोलन के साहित्यकार रहे हैं। गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर वे समान अधिकार रखते थे। प्रो. मिश्र को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य के तौर पर भी पहचाना जाता रहा है।
तीन भाइयों में थे सबसे छोटेडॉ. रामदरश मिश्र का जन्म डुमरी के रामचंद्र मिश्र और कमलापति मिश्र के परिवार में हुआ था। वह तीन भाइयों में तीसरे स्थान पर थे। उनके दो बड़े भाई राम अवध मिश्र और रामनवल मिश्र थे। दोनों का निधन पहले ही हो चुका है। उनसे एक छोटी बहन भी है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के मिडिल स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद ढरसी गांव के राष्ट्रभाषा विद्यालय से विशेष योग्यता बरहज से विशारद और साहित्यरत्न की परीक्षाएं पास कीं। 1945 में वे वाराणसी और प्राइवेट स्कूल से साल भर मैट्रिक की पढ़ाई की। मैट्रिक पास करने के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।
काशी हिंदू यूनिवर्सिटी से इंटर, हिंदी से स्नातक, पीजी और डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। बीएचयू से पीएचडी के बाद वे गुजरात चले गए। वर्ष 1956 में सयाजीराव गायकवाड़ यूनिवर्सिटी, बड़ौदा में शिक्षक के तौर पर नियुक्ति हुई। वर्ष 1958 में वे गुजरात विश्वविद्यालय से संबद्ध हो गए। वर्ष 1964 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय आ गए। दिल्ली यूनिवर्सिटी से वर्ष 1990 में वे बतौर प्रोफेसर रिटायर हुए।
प्रेमचंद परंपरा के उत्तराधिकारीरामदरश मिश्र दिल्ली आकर यहीं के होकर रह गए। दिल्ली से उनकी करीब 150 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण, डायरी, यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा और निबंध लगभग हर साहित्यिक विधा में उन्होंने अपनी कलम की छाप छोड़ी। रामदरश मिश्र को हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का सशक्त संवाहक माना जाता है। उनके उपन्यासों में भारतीय समाज के सुख-दुख, नैतिक द्वंद्व, करुण यथार्थ और मानवीय संवेदनाएं जीवंत हो उठती हैं। 'पानी के प्राचीर', 'जल टूटता हुआ' और 'अपने लोग' जैसे उनके उपन्यास भारतीय समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
साहित्यकारों के अनुसार, रामदरश मिश्र ने अपने उपन्यासों में जीवन के आम आदमी की जद्दोजहद को जिस सच्चाई और संवेदना से चित्रित किया है, वह उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का सच्चा उत्तराधिकारी बनाता है। रामदरश मिश्र के उपन्यासों में ग्राम्य सादगी, लोकभाषा की मिठास और जीवन की करुणा का अनूठा संगम देखने को मिलता है। उनके पात्र सीधे-साधे होते हुए भी अत्यंत प्रभावशाली हैं। उनके उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि कोई किताब नहीं, बल्कि जिंदगी पढ़ रहे हैं।
200 शोध प्रबंध लिखे गएलगभग आठ दशकों तक निरंतर लेखन करने वाले रामदरश मिश्र पर अब तक 200 से अधिक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। उन्हें सरस्वती सम्मान, भारत भारती पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान और दयावती मोदी कवि शेखर पुरस्कार जैसे अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत किया गया है। उनके उपन्यासों में राप्ती नदी एक प्रतीक की तरह बहती है, संघर्ष, जीवटता और जीवन के प्रवाह की प्रतीक के मौर पर। 'पानी के प्राचीर' और 'जल टूटता हुआ' में ग्रामीण जीवन की सरलता और प्रकृति की जीवंतता दिखती है।
वहीं, 'अपने लोग' में शहरी जीवन की विडंबनाएं और जटिलताएं उजागर होती हैं। उनके पात्र न केवल समाज के भीतर रहते हैं, बल्कि समाज को बदलने की चेतना भी जगाते हैं। एक इंटरव्यू में प्रो. मिश्र ने कहा था कि मैं पहले से कुछ तय नहीं करता। बस मन में एक हल्की-सी तस्वीर रहती है और फिर लिखते-लिखते जिंदगी खुद सामने आती जाती है। यही सहजता उनके लेखन की असली शक्ति है।
साहित्य जगत में था बड़ा स्थानरामदरश मिश्र के लेखन में न किसी वाद का आग्रह है, न बौद्धिक प्रदर्शन। वे वाद-विवादों से परे, जीवन के यथार्थ को उसकी संपूर्णता में पकड़ते हैं। इसीलिए उनके उपन्यासों को 'जीवन की नदी-गाथा' कहा गया है, जिसमें लोक, प्रेम, करुणा, संघर्ष और आशा की लहरें एक साथ बहती हैं। रामदरश मिश्र को भारतीय साहित्य के इतिहास पुरुषों में गिना जाता हैं। उन्होंने जिस संवेदना और सादगी के साथ आम जन की पीड़ा को शब्द दिए, वह उन्हें न केवल एक महान साहित्यकार बल्कि भारतीय समाज की आत्मा का स्वर बना देता है।
रामदरश मिश्र ने समय-समय पर ललित निबंध भी लिखे। कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख, नया चौराहा में संग्रहीत हैं । इन निबंधों ने अपनी मौलिकता और सहज भाषा के कारण लेखकों और पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। उन्होंने देशी यात्राओं के साथ-साथ नेपाल, चीन, उत्तरी दक्षिणी कोरिया, मास्को तथा इंग्लैंड की यात्राएं की।
2025 में मिला पद्मश्रीप्रो. रामदरश शास्त्री को हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान के लिए वर्ष 2025 में देश के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया गया। बीमार होने के कारण वे पद्मश्री का सम्मान लेने नहीं जा सके। उनके आवास पर उन्हें पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार मिलने पर वे काफी खुश हुए थे। उन्होंने कहा था कि अपनी पुस्तकों और रचनाओं के लिए कई सम्मान मिले हैं, लेकिन पद्मश्री उनके लिए सबसे खास है। यह सरकार ने उन्हें दिया है, जो देश के शीर्ष नागरिक पुरस्कारों में से एक है। इसलिए उन्होंने इसे अपने लिए खास बताया था।
तीन भाइयों में थे सबसे छोटेडॉ. रामदरश मिश्र का जन्म डुमरी के रामचंद्र मिश्र और कमलापति मिश्र के परिवार में हुआ था। वह तीन भाइयों में तीसरे स्थान पर थे। उनके दो बड़े भाई राम अवध मिश्र और रामनवल मिश्र थे। दोनों का निधन पहले ही हो चुका है। उनसे एक छोटी बहन भी है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के मिडिल स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद ढरसी गांव के राष्ट्रभाषा विद्यालय से विशेष योग्यता बरहज से विशारद और साहित्यरत्न की परीक्षाएं पास कीं। 1945 में वे वाराणसी और प्राइवेट स्कूल से साल भर मैट्रिक की पढ़ाई की। मैट्रिक पास करने के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।
काशी हिंदू यूनिवर्सिटी से इंटर, हिंदी से स्नातक, पीजी और डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। बीएचयू से पीएचडी के बाद वे गुजरात चले गए। वर्ष 1956 में सयाजीराव गायकवाड़ यूनिवर्सिटी, बड़ौदा में शिक्षक के तौर पर नियुक्ति हुई। वर्ष 1958 में वे गुजरात विश्वविद्यालय से संबद्ध हो गए। वर्ष 1964 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय आ गए। दिल्ली यूनिवर्सिटी से वर्ष 1990 में वे बतौर प्रोफेसर रिटायर हुए।
प्रेमचंद परंपरा के उत्तराधिकारीरामदरश मिश्र दिल्ली आकर यहीं के होकर रह गए। दिल्ली से उनकी करीब 150 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण, डायरी, यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा और निबंध लगभग हर साहित्यिक विधा में उन्होंने अपनी कलम की छाप छोड़ी। रामदरश मिश्र को हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का सशक्त संवाहक माना जाता है। उनके उपन्यासों में भारतीय समाज के सुख-दुख, नैतिक द्वंद्व, करुण यथार्थ और मानवीय संवेदनाएं जीवंत हो उठती हैं। 'पानी के प्राचीर', 'जल टूटता हुआ' और 'अपने लोग' जैसे उनके उपन्यास भारतीय समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
साहित्यकारों के अनुसार, रामदरश मिश्र ने अपने उपन्यासों में जीवन के आम आदमी की जद्दोजहद को जिस सच्चाई और संवेदना से चित्रित किया है, वह उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का सच्चा उत्तराधिकारी बनाता है। रामदरश मिश्र के उपन्यासों में ग्राम्य सादगी, लोकभाषा की मिठास और जीवन की करुणा का अनूठा संगम देखने को मिलता है। उनके पात्र सीधे-साधे होते हुए भी अत्यंत प्रभावशाली हैं। उनके उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि कोई किताब नहीं, बल्कि जिंदगी पढ़ रहे हैं।
200 शोध प्रबंध लिखे गएलगभग आठ दशकों तक निरंतर लेखन करने वाले रामदरश मिश्र पर अब तक 200 से अधिक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। उन्हें सरस्वती सम्मान, भारत भारती पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान और दयावती मोदी कवि शेखर पुरस्कार जैसे अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत किया गया है। उनके उपन्यासों में राप्ती नदी एक प्रतीक की तरह बहती है, संघर्ष, जीवटता और जीवन के प्रवाह की प्रतीक के मौर पर। 'पानी के प्राचीर' और 'जल टूटता हुआ' में ग्रामीण जीवन की सरलता और प्रकृति की जीवंतता दिखती है।
वहीं, 'अपने लोग' में शहरी जीवन की विडंबनाएं और जटिलताएं उजागर होती हैं। उनके पात्र न केवल समाज के भीतर रहते हैं, बल्कि समाज को बदलने की चेतना भी जगाते हैं। एक इंटरव्यू में प्रो. मिश्र ने कहा था कि मैं पहले से कुछ तय नहीं करता। बस मन में एक हल्की-सी तस्वीर रहती है और फिर लिखते-लिखते जिंदगी खुद सामने आती जाती है। यही सहजता उनके लेखन की असली शक्ति है।
साहित्य जगत में था बड़ा स्थानरामदरश मिश्र के लेखन में न किसी वाद का आग्रह है, न बौद्धिक प्रदर्शन। वे वाद-विवादों से परे, जीवन के यथार्थ को उसकी संपूर्णता में पकड़ते हैं। इसीलिए उनके उपन्यासों को 'जीवन की नदी-गाथा' कहा गया है, जिसमें लोक, प्रेम, करुणा, संघर्ष और आशा की लहरें एक साथ बहती हैं। रामदरश मिश्र को भारतीय साहित्य के इतिहास पुरुषों में गिना जाता हैं। उन्होंने जिस संवेदना और सादगी के साथ आम जन की पीड़ा को शब्द दिए, वह उन्हें न केवल एक महान साहित्यकार बल्कि भारतीय समाज की आत्मा का स्वर बना देता है।
रामदरश मिश्र ने समय-समय पर ललित निबंध भी लिखे। कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख, नया चौराहा में संग्रहीत हैं । इन निबंधों ने अपनी मौलिकता और सहज भाषा के कारण लेखकों और पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। उन्होंने देशी यात्राओं के साथ-साथ नेपाल, चीन, उत्तरी दक्षिणी कोरिया, मास्को तथा इंग्लैंड की यात्राएं की।
2025 में मिला पद्मश्रीप्रो. रामदरश शास्त्री को हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान के लिए वर्ष 2025 में देश के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया गया। बीमार होने के कारण वे पद्मश्री का सम्मान लेने नहीं जा सके। उनके आवास पर उन्हें पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार मिलने पर वे काफी खुश हुए थे। उन्होंने कहा था कि अपनी पुस्तकों और रचनाओं के लिए कई सम्मान मिले हैं, लेकिन पद्मश्री उनके लिए सबसे खास है। यह सरकार ने उन्हें दिया है, जो देश के शीर्ष नागरिक पुरस्कारों में से एक है। इसलिए उन्होंने इसे अपने लिए खास बताया था।
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